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keynes ke rojgar siddhant ki vyakhya kijiye कीन्स के रोजगार सिद्धांत की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए

कीन्स के रोजगार के सिद्धांत के अनुसार, प्रभावी मांग वस्तुओं और सेवाओं की खपत और निवेश पर खर्च किए गए धन को दर्शाती है। कूल व्यय राष्ट्रीय आय के बराबर है, जो राष्ट्रीय उत्पाद के बराबर है।

कीन्स के रोजगार सिद्धांत की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए?

यह विषय अर्थशास्त्र (Keynes’s Theory of Employment) से जुड़ा है। निम्न संरचना रहेगी –

  1. भूमिका (Introduction)
  2. किंग्स के रोजगार सिद्धांत की पृष्ठभूमि
  3. सिद्धांत का मुख्य प्रतिपादन
    • प्रभावी मांग का सिद्धांत (Theory of Effective Demand)
    • उपभोग प्रवृत्ति (Propensity to Consume)
    • निवेश की प्रवृत्ति और पूँजी की सीमांत दक्षता
    • रोजगार और उत्पादन का निर्धारण
  4. सिद्धांत के महत्व और योगदान
  5. सिद्धांत की आलोचनाएँ
    • सैद्धांतिक आलोचनाएँ
    • व्यावहारिक आलोचनाएँ
    • आधुनिक संदर्भ में आलोचनाएँ
  6. वर्तमान समय में प्रासंगिकता
  7. निष्कर्ष

1. भूमिका

बीसवीं सदी की शुरुआत में जब पूरी दुनिया महामंदी (Great Depression 1929) के संकट से गुजर रही थी, तब रोजगार की समस्या अर्थशास्त्रियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी। शास्त्रीय अर्थशास्त्री (Classical Economists) मानते थे कि “बाजार अपने आप संतुलन स्थापित कर लेता है और पूर्ण रोजगार की स्थिति स्वाभाविक है।” किंतु वास्तविकता इसके ठीक उलट थी—बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, उद्योगों का बंद होना और आर्थिक ठहराव। ऐसे समय में जॉन मेनार्ड किंग्स (John Maynard Keynes) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “General Theory of Employment, Interest and Money” (1936) के माध्यम से रोजगार और आय के निर्धारण का नया सिद्धांत प्रस्तुत किया। इसे ही “किंग्स का रोजगार सिद्धांत” कहा जाता है।


2. किंग्स के रोजगार सिद्धांत की पृष्ठभूमि

शास्त्रीय अर्थशास्त्र का आधार “से का नियम” (Say’s Law of Market) था, जिसके अनुसार “आपूर्ति अपनी मांग स्वयं उत्पन्न करती है।” इसका अर्थ था कि जितना उत्पादन होगा उतनी ही मांग बनेगी और बेरोजगारी की स्थिति नहीं रहेगी। लेकिन महामंदी ने इस सिद्धांत को झुठला दिया।

किंग्स ने कहा कि वास्तविक जीवन में मांग अपर्याप्त होती है, जिसके कारण उद्योगों को घाटा होता है, उत्पादन घटता है और बेरोजगारी बढ़ती है। इस समस्या का समाधान प्रभावी मांग (Effective Demand) की अवधारणा में है।


3. सिद्धांत का मुख्य प्रतिपादन

(क) प्रभावी मांग का सिद्धांत

किंग्स का मुख्य प्रतिपादन प्रभावी मांग है।

  • प्रभावी मांग = कुल मांग (Aggregate Demand) और कुल आपूर्ति (Aggregate Supply) के प्रतिच्छेदन बिंदु पर निर्धारित होती है।
  • रोजगार का स्तर इस प्रभावी मांग पर निर्भर करता है।
  • यदि मांग अपर्याप्त है तो रोजगार भी कम होगा।

(ख) उपभोग प्रवृत्ति (Propensity to Consume)

  • किंग्स ने कहा कि लोग अपनी आय का एक भाग उपभोग में और शेष बचत में लगाते हैं।
  • जैसे-जैसे आय बढ़ती है, उपभोग भी बढ़ता है, परंतु बचत की प्रवृत्ति उपभोग की अपेक्षा तेज़ी से बढ़ती है।
  • परिणामस्वरूप, मांग घटती है और बेरोजगारी उत्पन्न होती है।

(ग) निवेश की प्रवृत्ति और पूँजी की सीमांत दक्षता (Marginal Efficiency of Capital)

  • रोजगार बढ़ाने के लिए निवेश आवश्यक है।
  • निवेश का स्तर पूँजी की सीमांत दक्षता (MEC) और ब्याज दर पर निर्भर करता है।
  • यदि निवेश घटेगा तो रोजगार के अवसर भी घटेंगे।

(घ) रोजगार और उत्पादन का निर्धारण

  • रोजगार का स्तर कुल मांग पर आधारित है।
  • जब तक कुल मांग बढ़ती है, तब तक उत्पादन और रोजगार बढ़ेंगे।
  • अधिकतम रोजगार तभी संभव है जब प्रभावी मांग पर्याप्त हो।

4. सिद्धांत के महत्व और योगदान

  1. नया दृष्टिकोण – किंग्स ने शास्त्रीय अर्थशास्त्र को चुनौती दी और यह सिद्ध किया कि बेरोजगारी पूँजीवाद की स्वाभाविक समस्या है।
  2. सरकारी हस्तक्षेप की वकालत – उन्होंने कहा कि मांग बढ़ाने के लिए सरकार को सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure) करना चाहिए।
  3. आधुनिक मैक्रोइकॉनॉमिक्स की नींव – किंग्स को आधुनिक समष्टि अर्थशास्त्र (Macroeconomics) का जनक कहा जाता है।
  4. व्यावहारिक उपयोगिता – अमेरिका में न्यू डील पॉलिसी और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के पुनर्निर्माण में किंग्स के विचारों का सफल उपयोग हुआ।

5. सिद्धांत की आलोचनाएँ

(क) सैद्धांतिक आलोचनाएँ

  1. अल्पकालीन दृष्टिकोण – किंग्स का सिद्धांत केवल अल्पकाल के लिए उपयुक्त है, दीर्घकालीन समाधान नहीं देता।
  2. पूर्ण रोजगार की उपेक्षा – किंग्स ने यह मान लिया कि अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी स्वाभाविक है और पूर्ण रोजगार दुर्लभ है। आलोचकों का कहना है कि यह निराशावादी दृष्टिकोण है।
  3. ब्याज दर की भूमिका – शास्त्रीय अर्थशास्त्री मानते थे कि बचत और निवेश का संतुलन ब्याज दर से होता है। किंग्स ने इसे नकार दिया, जिसे कुछ अर्थशास्त्री अव्यवहारिक मानते हैं।

(ख) व्यावहारिक आलोचनाएँ

  1. विकासशील देशों के लिए अनुपयुक्त – भारत जैसे देशों में बेरोजगारी का कारण मांग की कमी नहीं बल्कि संरचनात्मक समस्याएँ (जनसंख्या वृद्धि, तकनीकी पिछड़ापन, शिक्षा की कमी) हैं।
  2. मुद्रास्फीति की समस्या – मांग बढ़ाने की नीतियाँ कई बार महँगाई को जन्म देती हैं।
  3. सरकारी व्यय का बोझ – किंग्स की नीतियों से राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit) और सार्वजनिक ऋण (Public Debt) बढ़ सकता है।

(ग) आधुनिक संदर्भ में आलोचनाएँ

  • वैश्वीकरण, तकनीकी क्रांति और सेवा-क्षेत्र आधारित अर्थव्यवस्था में केवल मांग बढ़ाना पर्याप्त नहीं है।
  • बेरोजगारी के नए रूप (तकनीकी बेरोजगारी, कौशल असंगति) किंग्स के सिद्धांत में स्पष्ट नहीं हैं।

6. वर्तमान समय में प्रासंगिकता

  • COVID-19 महामारी के बाद मांग में गिरावट आई, तब अधिकांश देशों ने किंग्सियन नीतियों (जैसे सरकारी प्रोत्साहन पैकेज, नकद हस्तांतरण, सार्वजनिक निवेश) को अपनाया।
  • आधुनिक समय में भी जब मंदी आती है, तब अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए किंग्स का सिद्धांत अत्यंत उपयोगी है।
  • हाँ, यह अकेला पर्याप्त नहीं है; आज इसे आपूर्ति पक्षीय नीतियों (Supply-side policies) और तकनीकी विकास के साथ मिलाकर लागू करना होता है।

7. निष्कर्ष

किंग्स का रोजगार सिद्धांत आर्थिक इतिहास का एक मील का पत्थर है। इसने शास्त्रीय विचारधारा की सीमाओं को तोड़ा और यह दिखाया कि रोजगार का स्तर स्वतः तय नहीं होता, बल्कि प्रभावी मांग पर निर्भर करता है। इसके आधार पर आधुनिक राजकोषीय नीतियाँ और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा विकसित हुई।

यद्यपि इसकी कुछ सीमाएँ हैं—विशेषकर विकासशील देशों में और दीर्घकालीन संदर्भ में—फिर भी यह सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है। मंदी और आर्थिक संकट के समय सरकारें अभी भी किंग्सियन उपायों का सहारा लेती हैं।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि किंग्स का रोजगार सिद्धांत अर्थशास्त्र की एक ऐतिहासिक उपलब्धि है, जिसने रोजगार समस्या के समाधान के लिए नया रास्ता दिखाया और आधुनिक अर्थनीति को दिशा दी।


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